चम्बल का सामंत चंडमहासेन ! चम्बल बीहड का पहला बागी

चम्बल एक सिंहाअवलोकन



'सामंत चंड महासेन और प्रथम बागी'
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'बीहड़' का नाम सुनते ही अच्छे-अच्छों के रौंगटे खड़े हो जाते हैं। हल्की भुरभुरी से बने ऊँचे और विशालतम पर्वतनुमा टीले और टीलो के अनुरूप उगी हुई शुष्ककालीन कँटीली वनस्पति हालाँकि औषधीय दृष्टि में बहुमूल्य जडियो का खजाना भी कह सकते हे किन्तु यह बीहड़ कैसे बना, इसकी अहम कहानी क्या है!यह आज भी शोध और अध्यन का विषय है ।
चम्बल की कहानी प्रारम्भ होती है महु से और धौलपुर, ग्वालियर, भिंड, मुरैना, आगरा की तराई से पचनद इटावा की मरुभूमि में इसके पानी को 'तामसी खाद' का एक अद्भुत संगम मिलता हे। राजस्थान के कोटा को आँचल में समेटे यह एक मात्र स्वच्छ नदी 900 किमी क्षेत्र में अपना अंक समेटे है।बीहड़ के बीचो बीच एक सुन्दर और देश की स्वच्छ चंबल नदी बहती है ।


यह भारत की इकलौती नदी है जो प्रदूषण से मुक्त है, पर इसके जल को न तो इंसान, पी सकते थे और न ही जानवर (ये बात हालांकि अतिशयोक्ति है )। चंबल को शापित नदी के नाम से जाना जाता है। इस नदी के बारे में पुराण में भी लिखा गया है, चंबल की जिक्र महाभारत काल में है। मुरैना के पास इसी नदी के तट पर शकुनी ने जुएं में पांडवों को पराजित कर द्रौपदी का चीरहरण किया था। तभी क्रोधित होकर द्रौपदी ने नदी को शाप दिया था !
 जहाँ सभी नदियो के आँचल में महानगरो का वैभव आया वही चम्बल को मिले कांटे,जलीयग्रह,बगावती तेवर रक्त-रंजिश की दुश्मनिया,अंग्रेजो के विरुद्ध गोलियों से लेकर डकैतियों तक के महानायक और स्वतन्त्र हुए राष्ट्र को समर्पित हजारो सैनिक....!


इसके अभिशप्त होने को उससे भी पहले राजा रंतिदेव के समय से जोड़ा जाता रहा है। शुरू से ही बगावत को शरण देने वाले माने जाते रहे इसके बीहड़ों में  दिल्ली से रॉज्योच्युत होकर आए तोमर राजवंश ने भी शरण पाई थी और इसके पश्चिमी क्षेत्र की तराई को एक इतिहास संगत संज्ञा "तँवर घार" की स्थापना हुई ।
मुगलों और अंग्रेजों के काल से डाकू समस्या के लिए इसे जाना जाने लगा था। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस घाटी में पहला डकैत कौन था ?
 
धौलपुर के व्याघ्रप्रद गोत्रीय सामंत चंड महासेन की गाथा, जो अपने अधिकार छीन लिए जाने पर बगावत कर बाग़ी और लूट के कारण डाकू बन गया था।  
बात उस दौर की है जब दिल्ली पर तोमर शासन समाप्त हो गया  था। उनके धौलपुर सामंत को हटा कर मालवा के शासक राजा भोज ने अपना सामंत नियुक्त कर दिया था। लेकिन धौलपुर के तत्कालीन वत्स वंश के युवराज महासेन को ये कतई स्वीकार नहीं था। चंबल क्षेत्र पर अपने वंशानुगत अधिकार को हासिल करने के लिए आखिरकार वह बागी बन गया। उसने चंबल के बीहड़ों में अपनी सेना के साथ शरण ले ली, और चंबल के रास्ते मालवा की और जाने वाले व्यापारियों से कर वसूलना शुरू कर दिया। कर देने से मना करने वालों को महासेन दंड भी देने लगा। व्यापारियों ने सख्ती से पेश आने की वजह से उसके नाम के आगे चंड भी जोड़ दिया। मालवा के शासक राजा भोज से उसकी शिकायत डाकू चंड महासेन के तौर पर की गई। 
धौलपुर से मुरैना होते हुए भिंड तक फैले चंबल के जलीय रास्तों से गुजरने वाले व्यापारियों को चंड महासेन ने लूटना शुरू कर दिया था।  चंबल के रास्ते से गुजरने वाले व्यापारियों के दल को चंड अचानक बीहड़ों से निकल कर घेर लेता था और व्यापार कर मांगता था। जब जवाब राजा भोज को कर चुकाने के हवाले से न में मिलता था, तो चंड और उसके सैनिक कर से कई गुना धन जबरिया व्यापारियों से वसूल कर लेते थे। चंबल घाटी के दूसरे डकैतों की तरह चंड महासेन भी देवी का भक्त था। वह बीहड़ों में तोमर राजवंश द्वारा स्थापित देवी मंदिर में नियमित पूजा करता था। उसने बीहड़ों में एक किले नुमा छोटा सा ठिकाना भी बना लिया था। अपने अधिकार को छीनने के जुनून ने चंड महासेन को निर्दयी हत्यारा बना दिया था ।
  
 चंड के उत्पात से व्यापारियों में आतंक व्याप्त हो गया। राजा भोज ने उसे पकड़ने कई सैनिक अभियान चलाए, लेकिन बीहड़ों की कठिनता की वजह से चंड का कुछ  नहीं बिगड़ा। आखिरकार राजा भोज ने दिल्ली से आकर चंबल क्षेत्र में बसे तोमर शाशक से चंड के आतंक से छुटकारा दिलाने का आग्रह किया। उसके बदले में तोमरों के शासक 'वज्रट तोमर' को चंबल क्षेत्र में कर वसूली का अधिकार देने की पेशकश की। और मात्र 'सामन्त' पद के लिए तोमरों की तलवारे तोमरों के रक्त से रंग दी गयी ।
युद्ध स्तिथि बड़ी विकट थी,दोनो तरफ एक ही रक्त अपने पक्ष का प्रतिनिधित्व कुशलता से कर रहा था किन्तु चन्द् महासेंन रूपी छलावा हर बार धता बता कर आसानी से निकल जाया करता आखिर बो भी इस मिटटी का लाल था और परम्परागत छापामार,गुरिल्ला युद्धों का पारंगत था ।
कितने प्रत्क्षय दिवसीय युद्ध हुए दोनों तरफ से बहने बाला रक्त एक था किन्तु ग्लानि किसी को नाममात्र ना थी।हा चिंता और चिंतन मात्र अपनी-अपनी रक्षा और आक्रमण का था ।
इसी बीच भदावर नरेश को निमन्त्रण दिया गया की वह अपने क्षेत्र को महासैन से मुक्त कराने के लिए बागी उन्मूलन कारवाही में सहयोग करे और भदावर नरेश सहर्ष तैयार हुए ।
वह दिन शायद चंड महासेन के लिए बहुत बुरा था और एक व्यापारियो का बड़ा जत्था धौलपुर-मुरैना की राहों से गुजरा जिसमें दिल्ली से पहुचें रचे एक बड़े खजाने की अफवाह साथ थी और महासेन की टोली  ने चिरपरिचित अंदाज में आक्रमण किया किन्तु खारो में छिपी एक बड़ी टुकड़ी से खनखन तलवारे बजने लगी चहुंओर से घिरी महासेन की टुकड़ी धराशाही होती रही और एक भल्ल महासेन के उदर को आरपार भेद गया और  बीहड़ो के आदी हो चुके तोमर सैनिकों ने चंड को मार गिराया, व्यापारियों को चंबल के रास्ते से निर्भय होकर गुजरने देने को खुद मुस्तैद रह कर सुनिश्चित किया ।
शायद बागियों के इतिहास की यह पहली घटना होगी जब एक सगोत्रीय द्वारा सगोत्रीय रक्त से पहली सगोत्रीय पिपासा की नीव रखी थी जो आज भी निरन्तर रक्त पिपासाये जागृत कर ही देती है



लेखक परिचय


जितेंंद्र् सिंंह तोमर, 52 से
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