दानदाताओं पर टिकी उम्मीदें, आखिर कब पहुंचेगा सरकारी खाद्यान्न जरूरत मन्दो तक ? शहरी सीमाओं के वार्ड में आखिर कैसे पहुंच रहा खाद्यान्न ?

 



जनतंत्र गाथा
राजवर्धन सिंह। वैश्विक महामारी कोरोना ने मजदूर वर्ग और गरीब तबके की कमर तोड़ दी है। जो दिहाड़ी मजदूर रोज कुँआ खोद पानी पीते थे वर्तमान समय में उनके पास न पानी है न कुँआ खोदने के संसाधन है। सटीक शब्दों में कहा जाए तो शासन की योजनाओं को इस विपदा की घड़ी में जिम्मेदार पलीता लगाने से बाज नहीं आ रहे है। चाहे बात पेट की आग बुझाने वाले राशन की करें या जनधन के खातों से मिलने वाली राशि की,जनधन पर कियोस्क संचालक भी इन गरीबों के हक पर डाका डाल रहे हैं


जो मेहनतकश लोग कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाते थे वे आज दानवीरों के आगे मोहताज़ हैं।जिन गरीब मजदूर की मेहनत से वेयरहाउस, सड़के,इमारतें बनाई जाती रहीं हैं उनकी ही बदौलत उच्च वर्ग का तबका धनाढ्य हो गया,जिन गरीब मजदूर के वोट से सरकारें बनती हैं और उस सरकार से वे मुफलिसी में मदद की उम्मीद करते हैं वो मदद आखिर कब मिलेगी।कब तक इन मेहनतकश लोगों को भिखारियों और दिव्यांग की तरह दो मुट्ठी राशन के लिये लाइन में लगना पड़ेगा,आखिर कब तक ? 


जिस सरकारी सहायता का ढिंढोरा पीटा जा रहा है जिस सरकारी खाद्यान्न की बात की जा रही है आखिर कब वो जरूरतमंद के हाथों तक पहुंचेगा। क्या कर्फ्यू और लॉक डाउन में तमाम रोजगार इसलिये बन्द कर दिए गए है की इन बेसहारा मजदूरों और गरीबों का पेट समाजसेवी और पुलिस भरेंगे।
कई घरों में ऐसे बीमार लोग है जिन्हें प्रतिदिन दवाइयों की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे परिवार विपदा की इस घड़ी में बमुश्किल अपना जीवन यापन कर रहे हैं।उन्हें दवाइयों के लिए पड़ोसियों के आगे हाथ फैलाने को मजबूर होना पड़ रहा है। हालांकि सरकार दावे तो बहुत कर रही है पर धरातल पर हालात अलग ही हैं।